पुण्यतिथि पर विशेष –
लखनऊ, 25 सितंबर2022, पहाड़ की माटी में जन्मे प्रो रणवीर सिंह बिष्ट ने जीवन के विभिन्न पहलुओं को रंगों के माध्यम से कैनवास पर उकेरकर जिस तरह से अंतरराष्ट्रीय स्तर पर ख्याति अर्जित की, वह अपने आप मे एक मिसाल है। राजकीय कला महाविद्यालय, लखनऊ के सन 1968 से 1972 तक प्राचार्य भी और जब कला महाविद्यालय के , लखनऊ विश्वविद्यालय का भाग बन जाने पर 1973 से 88 तक ललित कला संकाय के अध्यक्ष (डीन) रहे। 1989 में लंबी सेवा के पश्चात सेवानिवृत्त हुए। पद्मश्री सहित अनेक राष्ट्रीय और अंतरराष्ट्रीय स्तर के पुरस्कार से सम्मानित इस महान चित्रकार ने हृदय में आकार लेने वाली भावनाओं को रंगों की रंगत देकर लोक रंजन की जो भाव भूमि तैयार की, उसने उन्हें एक ऐसा लोकधर्मी कलाकार बना दिया जिसकी रचनाएं हमेशा कलाप्रेमियों को प्रेरित करती रहेंगी।
पद्मश्री बिष्ट के बारे में देहरादून के रमेश छेत्री कहते हैं कि प्रोफेसर आर, एस,विष्ट जी, को मैनें सदैव, एक महान कला शिक्षक के रूप में ही देखा। उनसे जब भी,कला विद्यालय,लखनऊ में अल्प समय में भी मिलना हुआ, मात्र कला विषय पर ही सार्थक विचार उनके मुख से सुनने को मिलता,मैं धन्य हो जाता। उत्तराखण्ड के महान आधुनिक चित्रकार को सत सत नमन । बिष्ट के बारे में मुंबई से विजय पंडित कहते हैं कि मुझे उनसे पढ़ने का सौभाग्य प्राप्त हुआ है। वर्ष 1989 की बात है।तब मैं भारतेंदु नाट्य अकादमी लखनऊ में पढ़ रहा था।
कला एवं शिल्प महाविद्यालय के प्राचार्य रहे रणवीर सिंह बिष्ट ने अपने जलरंगों के भूदृश्यों से व्यापक प्रशंसक वर्ग बनाया लेकिन इसके साथ ही वे प्रयोगशील कलाकार के तौर पर चर्चित हुए। वैश्विक स्तर पर कला में हो रहे प्रयोगों से लखनऊ को जोड़ने में भी उनकी महत्वपूर्ण भूमिका रही।
चित्रकार भूपेंद्र अस्थाना ने बताया कि रणवीर सिंह बिष्ट का जन्म 4 अक्टूबर 1928 को लैंसडौन, गढ़वाल उत्तराखंड में हुआ । 1948 में कला एवं शिल्प महाविद्यालय लखनऊ में प्रवेश छात्रवृत्ति के साथ प्राप्त किया। 1955 में सूचना विभाग में चित्रकार के पद पर कार्य किया। 1958 में राजकीय कला एवं शिल्प महाविद्यालय में प्रवक्ता एवं 1968 में प्रधानाचार्य के पद पर रहे। 1950 से 1998 के मध्य कई अखिल भारतीय कला पुरस्कार व भारत सरकार ने उन्हें 24 मार्च वर्ष 1991 में पद्म श्री का चौथा सर्वोच्च नागरिक पुरस्कार प्रदान किया। मुनाल की प्रेरक संस्था बुरांश के अध्यक्ष 1974 से 78 तक रहे। 1978 से मुनाल के आजीवन संरक्षक बने। उत्तराखंड आंदोलन में भागीदारी रही। ललित कला अकादमी ने उन्हें 1987 में अपनी फेलोशिप प्रदान की। 25 सितंबर 1998 को निधन हो गया। आज ऐसे कलाकार की पुण्यतिथि पर याद करना हम कलाकारों के लिए बड़े ही सम्मान की बात है। ऑनलाइन माध्यम से देश भर से कलाकारों ने अपने स्मृतियों को साझा की।
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