देवशयनी , देवउठनी एकादशी का बहुत ही महत्त्व है . देश दुनिया में इस ता अवसर पर विभिन्न प्रकार के कार्यक्रम होते हैं . न्यायधानी bilaspur भी कर आयोजन हो रहे हैं . कल भी भव्य कार्यक्रम हुए और आज भी हो रहे हैं .जानकारी के अनुसार दिनांक 12/13 नवम्बर 2024 को तुलसी विवाह एवं एकादशी उद्यापन में शहर के लोगों को सहभागी होने का न्योता दिया गया है .
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शालिग्रामजी की बारात प्रस्थान
दिनांक : 12 नवम्बर 2024
दिन : मंगलवार
समय : शाम 5 बजे
स्थान : श्रीराम मंदिर, पीपल चौक, बिल्हा
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तुलसी जी विवाह
समय : शाम 6 बजे
स्थान : मंगल सांस्कृतिक भवन, बिल्हा
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एकादशी उद्यापन एवं भंडारा
दिनांक : 13 नवम्बर 2024
दिन : बुधवार
समय : दोपहर 12 बजे से
स्थान : मंगल सांस्कृतिक भवन, बिल्हा
प्रबोधनी एकादशी समस्त वसुधा के लिए शुभ हो।
मंगलवार से समाप्त चातुर्मास्य के पीछे छिपे वैज्ञानिक कारण, जिन्हें हमारे पूर्वजों ने देवशयनी से देवउठनी एकादशी का नाम दिया था।
सुप्ते त्वयि जगन्नाथ जमत्सुप्तं भवेदिदम्।
विबुद्दे त्वयि बुद्धं च जगत्सर्व चराचरम्।।
पौराणिक कथाओं के अनुसार श्रीविष्णु चार मास तक पाताल लोक में राजा बली के यहां योगनिद्रा में निवास करते हैं और कार्तिक मास की शुक्ल पक्ष की एकादशी को प्रस्थान करते हैं। इसी कारण इसे देवशयनी एकादशी कहा जाता है। आषाढ़ मास(शुक्ल एकादशी) से कार्तिक मास(शुक्ल एकादशी) तक के समय को चातुर्मास्य कहते हैं। इन दिनों में साधु लोग एक ही स्थान पर रहकर तपस्या करते हैं।
अब इसके व्यवहारिक पक्ष पर बात करते हैं –
यदि सामान्य तौर पर देखें तो देव शयनी एकादशी जून से जुलाई के महीने में होती है जो एक मानसून माह है। सामान्यतः मानसून में विवाह आदि नहीं किये जाते क्योंकि ये बिमारियों का मौसम होता है। वर्षा ऋतु मे विविध प्रकार के कीटाणु अर्थात सूक्ष्म रोग जंतु उत्पन्न हो जाते हैं। जल की मात्रा ज्यादा होने के कारण और सूरज का प्रकाश भूमि पर कम आने की वजह से रोग आदि पनपते हैं।
इन चार महीनों में सूर्य, चंद्रमा और प्रकृति का तेजस तत्व कम हो जाता है।
देवशयनी एकादशी से साधुओं का भ्रमण भी बंद हो जाता है। वह एक जगह पर रुक कर प्रभु की साधना करते हैं। साथ ही तीर्थ यात्रायें भी वर्जित है क्योंकि आमतौर पर सभी तीर्थ स्थल पहाड़ी/वनीय क्षेत्रों में है और इस मौसम में पहाड़ी/वनीय क्षेत्र की यात्रा करना एक संकट भरा कार्य है।
हमारे यहाँ ऋषि मुनियों के स्थान भी देवतुल्य ही माना गया है। ऋषि मुनि अपनी एकांत वास छोड़कर गांव, नगर की तरफ प्रस्थान करते हैं और वहां रहकर समाज प्रबोधन/जागरण का कार्य करते हैं इसलिए भी इसे प्रोबधन का काल कहा गया और इसके प्रारंभ की तिथि को प्रबोधिनी।
हमारे देश में गाँव में आज भी मानसून आने के बाद मुख्य रूप से खेती ही की जाती है और अधिकांश मार्ग बारिश और जंगलों की वजह से अवरुद्ध हो जाते हैं। पहले यातायात के साधन भी पशुओं और ग्रामीण रास्तों को ध्यान में रखकर बनाए जाते थे इसलिए मानसून के चार महीने वैवाहिक कार्यक्रम हेतु वर्जित कर दिए जाते थे ताकि किसी को समस्या न हो।
सूत्र रूप में कहें तो ‘चातुर्मास’ काल हमें प्रकृति को सहेजना सिखा कर संयम और सदाचार की प्रेरणा देता है। वैदिक साहित्य में “हरि” का अर्थ सूर्य, विष्णु, अग्नि आदि से भी है। हरिशयनी एकादशी से हरि के योगनिद्रा में जाने के पीछे का मूल भाव प्रकृति में अग्नि तत्व की न्यूनता और जल तत्व की अधिकता को दर्शाता है। भारतीय आयुर्वेद के मनीषियों के अनुसार सूर्य या अग्नि तत्व पोषण की दृष्टि से अति महत्वपूर्ण होते हैं तथा वर्षाकाल में प्रकृति के सापेक्ष शरीर की जठराग्नि मन्द पड़ जाने से पाचन शक्ति कमजोर हो जाने से उदर व संक्रामक रोगों का प्रसार होने लगता है। मौसम में सूर्य के ताप में क्रमशः कमी और बरसात के साथ प्रकृति में जल तत्व की अधिकता से नमी या सीलन के कारण प्रतिरोधक क्षमता में कमी के चलते संक्रामक रोगाणुओं को पनपने का वातावरण मिल जाता है।
अतः कमजोर पाचन के साथ त्वचा पर फोड़े-फुंसियां, घमौरी, दाद के अलावा दमा, सर्दी, खांसी, जुकाम आदि रोग प्रमुख रूप से बढ़ने लगते हैं। बरसात के कारण जगह जगह दूषित पानी व गन्दगी जमा होने से मक्खी, मच्छर या अन्य कीड़े मकोड़े के द्वारा होने वाले जैसे मलेरिया, टायफायड, चिकनगुनिया, डेंगू, ज्वर, पीलिया आदि में भी वृद्धि हो जाती है। प्रतीत होता है कि वैदिक मनीषी वर्षाकाल में पनपने वाली इन व्याधियों से भलीभांति परिचित थे; तभी तो उन्होंने इन रोगों से बचाव के जो नियम सदियों पहले बनाये थे, उनकी प्रासंगिकता आज भी जस की तस है ।
प्राच्य चिकित्सा के अनुसार इस समय, पित्त स्वरूप अग्नि की गति शांत हो जाने के कारण शरीरगत शक्ति क्षीण होने लगती है। हमारे स्वास्थ्य विज्ञानियों की वर्षा ऋतु में देर से पचने वाले गरिष्ठ मसालेदार तैलीय व बासी भोजन, मांसाहार, बहुत ठंडे पेय के सेवन से बचने, दूध, दही आदि से परहेज करने तथा सादा सात्विक आहार लेने की सलाह को अब आधुनिक एलोपैथिक चिकित्सक भी उचित मान रहे हैं ताकि जीवनी शक्ति और मस्तिष्क की क्रिया में सन्तुलन बना रहे।
चातुर्मास के शास्त्रीय विधानों का मूल उद्देश्य मनुष्य को त्याग और संयम की शिक्षा देना भी है। इन नियमों के पालन से आत्मानुशासन की भावना जागृत होती है तथा खान-पान और आचार-विचार की शुद्धि से आध्यात्मिक साधना फलीभूत होती है। प्राचीन काल में साधु, संत चातुर्मास के दौरान एक ही स्थान पर रुक कर स्वाध्याय व प्रवचन-सत्संग द्वारास्वयं की आत्मोन्नति के साथ जन सामान्य का भी आध्यात्मिक विकास किया करते थे, यह परम्परा आज भी किन्हीं अंशों में कायम है। श्रीरामचरित मानस के किष्किंधा कांड में भगवान श्रीराम द्वारा वर्षाकाल में देवताओं द्वारा निर्मित गुफा में स्वाध्याय, धार्मिक चिंतन एवं शास्त्रार्थ करने का सुन्दर वर्णन मिलता है। बौद्ध व जैन धर्म में भी चातुर्मास का विशेष महत्व है। ये लोग इसे वर्षा वास कहते हैं। जैन मुनि वर्षा काल में धरती से निकलने वाले जीवों को हिंसा से बचाने के लिए एक ही स्थान पर रुककर स्वाध्याय, सत्संग व आध्यात्मिक ऊर्जा का विकास करते हैं।
- ललित कुमार अग्रवाल एवं परिवार, बिलासपुर