मुखिया से खुन्नस क्यों
विश्वविद्यालय परिसर में शिक्षकों की नियुक्ति के लिए लिखित परीक्षा और इंटरव्यू की प्रक्रिया इसलिए अपनाई जा रही है कि पूरी तरह पारदर्शी और निष्पक्ष कार्य हो सके लेकिन मुखिया के खिलाफ हर वक्त झंडा उठाए रहने वाले एक प्रोफेसर साहब ने इसमें भी खामी तलाश रहे हैं। अपने कुछ खास साथियों के बीच यह प्रोफेसर साहब यह कहने से नहीं चूकते हैं कि यह सब फालतू है … सब कुछ पहले से तय है । वह अपने तर्क के समर्थन में कला और शिक्षा संकाय में हुई एक-दो नियुक्तियों को गिनाते है । वे कहते हैं अगर सब कुछ पारदर्शी ढंग से हो रहा था तो फिर इस तरह की नियुक्तियां कैसे होगी? विश्वविद्यालय के माहौल को देखते हुए प्रोफेसर साहब के संगी- साथी भी खामोश होकर सुनते रहते हैं। उन्हें भी तो डर सत्ता है कि अगर कुछ बोले और बात मुखिया तक पहुंच गई तो प्रमोशन से लेकर करियर तक लटक जाएगा।
LU में नए पुरानों को मिला रहे
लखनऊ विश्वविद्यालय में पुराने छात्र नेताओं, छात्रसंघ के पदाधिकारी और पूर्व छात्रों के लिए युनिवर्सिटी एलमुनाई फाउंडेशन है। फाउंडेशन आए दिन नए – पुराने छात्र और छात्र नेताओं से जुड़े कार्यक्रम करता रहता है। उनके कार्यक्रमों में पुराने नेताओं द्वारा किए गए कार्यों , उनकी खासियत और उपलब्धियां की चर्चा करके वर्तमान छात्र नेताओं को बताया जाता है कि एक दशक पहले तक लखनऊ विश्वविद्यालय छात्र संघ और छात्र नेताओं के मामले में कितना कुछ होता था ? अब छात्रसंघ चुनाव भले ना हो रहे हैं लेकिन कम से कम फाउंडेशन इस पहल से नए और पुराने दोनों तरह के छात्र नेताओं के बीच पुल का काम कर रहा है ।
वर्ल्ड कप का फाइनल
वर्ल्ड कप की ट्रॉफी का फैसला सुन कर लखनऊ यूनिवर्सिटी के छात्रों को रोना आ गया। विश्वविद्यालय के कुछ उत्साही गुरुजनों ने बड़ी मुश्किल से प्लेग्राउंड में वर्ल्ड कप का फाइनल मुकाबला देखने के लिए रोचक इंतजाम किया था। छात्रों ने भी हनुमान मंदिर में पूजा पाठ भी किया था लेकिन मैच में भारत के स्कोर को देखकर ही अंदाज़ लगने लगा था कि अब ट्रॉफी जीतना आसान नहीं है और फाइनल होते-होते यह बात सही साबित हो गई । ट्रॉफी ऑस्ट्रेलिया के खिलाड़ियों के हाथों में पहुंच गई हालांकि मैच में कुछ शिक्षकों ने जब विद्यार्थियों को खेल भावना का अर्थ समझाया तो दर्शक दीर्घा में स्थिति सामान्य हो पाई। फिर भी मलाल तो है ही।
माध्यमिक विद्यालय के नेता जी
बहरहाल माध्यमिक विद्यालयों में शिक्षक राजनीति करने वाले एक अशासकीय सहायता प्राप्त इंटर कॉलेज के शिक्षक कभी अपने मूल संगठन में बड़े पदाधिकारी नहीं बन पाए। वह जब- तब संगठन में अपना वर्चस्व बनाए रखने के लिए अपने गुट के आदमी को अध्यक्ष / मंत्री का चुनाव लड़ते थे। पर यह कभी सफल नहीं हो पाए और अपने मूल संगठन की राजनीति में हो किनारे लगा दिए गए। लेकिन नेतागिरी के बिना भी बिचारे रह नहीं सकते इसलिए उन्होंने अपनी दुकानदारी बनाए रखने के लिए एक अनाम से शिक्षक संघ में पैठ बना ली और अब वहां पर प्रांत स्तर के पदाधिकारी बन गए। यह अलग बात है कि शिक्षा भवन में उन्हें अभी विद्यालय स्तर का भी शिक्षक नेता करने के लिए क्लर्क तैयार नहीं है।
© स्कालर
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