- वे 1964 – 1976 ६ तक दो टर्म राज्यसभा के सदस्य भी रहे
- उन्होंने पद्मविभूषण की पदवी लेने से इनकार कर दिया था
- उन्हें किसी तरह का दिखावा पसंद नहीं था।
- 14 अक्टूबर 2004 में उन्होंने 83 साल की उम्र में इस दुनिया से विदा ली
स्वतंत्रता संग्राम सेनानी, दार्शनिक, श्रमिकों-किसानों के हितैषी, अद्भुत संगठन क्षमता के धनी दत्तोपंत ठेंगड़ी। न कोई पद और न ही कोई रुतबा। जहां जैसा खाना मिल गया खा लिया और फिर अगले पड़ाव की ओर चल दिए। उन्होंने पद्मविभूषण की पदवी लेने से इनकार कर दिया था। वे 1964 – 1976 ६ तक दो टर्म राज्यसभा के सदस्य भी रहे।
24 घंटे अहर्निश राष्ट्रसेवा। 14 अक्टूबर को उनकी पुण्य पर सोशल मीडिया में तरह-तरह के विचार दिखाई दे रहे हैं। राष्ट्रीय स्वयंसेवक संघ के प्रचारक दत्तोपंत ठेंगड़ी (दत्तात्रेय बापूराव ठेंगड़ी)। महाराष्ट्र के वर्धा में 10 नवंबर 1920 में जन्म लेने वाले ठेंगडी ने कानून की पढ़ाई और इंटक जैसे श्रमिक संगठन भी पदाधिकारी रहे। आरएसएस के पूज्य गुुरु जी के सानिध्य में आने के बाद उन्होंने अपनी यात्रा एक नई दिशा में शुरू की। 14 अक्टूबर 2004 में उन्होंने83 साल की उम्र में इस दुनिया से विदा ली।
बात शुरू करते हैं भारतीय मजदूर संघ (बीएमएस) के उत्तर प्रदेश के बड़े नेता प्रेम सागर मिश्र के विचारों से। उन्होंने दत्तोपंत ठेंगड़ी को राष्ट्रऋ षि बताते हुए भारतीय मजदूर संघ की गोंडा में उनकी पुण्यतिथि मनाने और समाज के सभी वर्गों में फल व मिष्ठान वितरण की जानकारी दी गई। गोंडा जनपद के ही बीएमएस के जिला अध्यक्ष रामानंद तिवारी ने राष्ट्रऋषि की उपाधि देते हुए ठेंगड़ी के चरणों में भावपूर्ण श्रद्धांजलि दी है। बलरामपुर में भी ऐसा ही आयोजन किया गया। ऐसे ही पूरे देश में जगह-जगह आयोजन किए गए हैं।
दत्तोपंत ठेंगड़ी के लिए यह पद, पदवी और ऐसे आयोजन उन्हें एक दायरे तक रखते हैं लेकिन उनका ह्रदय, हिंदू धर्म और भारतीय दर्शन पर उनकी पकड़, उनकी सांगठनिक सोच, संगठन क्षमता और सादगी कोई दूसरी मिसाल नहीं मिल सकती और अगर मिलेगी भी तो सिर्फ उनके समान विचाराधारा वाले संगठन आरएसएस में ही। उन्होंने अपने जीवन में संघ के कई अनुषांगिक संगठनों की नींव रखी और उनके हाथ इतने पवित्र और पुण्य कार्य करने वाले थे, ऐसे सभी संगठन आज न केवल भारत में बल्कि पूरी दुनिया में नंबर एक बने हुए हैं। भारतीय मजदूर संघ इनमें से एक है। अनगिनत सामाजिक संगठनों के संस्थापक सदस्यों में दत्तोपंत ठेंगड़ी की छाप आज भी दिखाई देती है। वे पूरे देश के गांव-तालुका, जिला स्तर तक दौरे करते थे। उन्हें किसी तरह का दिखावा पसंद नहीं था।
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पूरी दुनिया में जब श्रमिक संगठनों के आंदोलनों की आवाजें और नारे देश हित के पक्ष में नहीं थे तब उन्होंने एक अद्भुत नारा दिया था राष्ट्रहित, उद्योग हित और श्रमिक हित। वे सबसे पहले राष्ट्रहित के पक्षधर थे और उसके बाद उद्योग हित और फिर श्रमिक हित। आप सोचिए कितनी दूरदर्शिता वाली बात थी। समझने के लिए जरूरी कि अगर देश रहेगा तो उद्योग चलेगा और उद्योगों के संचालन से ही श्रमिकों में खुशहाली आएगी लेकिन बीएमएस के विरोधी लाल सलाम वालेे संगठनों की सोच ऐसी थी कि आज कानपुर औद्योगिक नगरी के दर्जे को भूल गया है। वहां की मशीनें बंद पड़ी हैं और श्रमिकों को कोई पुरसाहाल नहीं है। हड़ताल से पूरे उद्योग समूह को तहस-नहस कर दिया और बचे-खुचे उद्योगों को भी लाल सलाम बंदी पर उतारु है लेकिन दत्तोपंत ठेंगडी की सोच आज भी बीएमएस में दिखाई देती है। जरूरत है इसे बनाए रखने की…