11 अक्तूबर/जन्म-दिवस पर विशेष
कृष्ण चन्द्र गांधी का जीवन परिचय
वेश से तो नहीं; पर मन, वचन और कर्म से साधु स्वभाव के श्री कृष्ण चन्द्र गांधी का जन्म 11 अक्तूबर, 1921 (विजयादशमी) को मेरठ (उ.प्र.) में श्री मुरारी लाल मित्तल के घर में हुआ था। बचपन में वे सर्दियों में भी नहाकर केवल धोती पहनकर ध्यान करते थे। यह सादगी देखकर लोग उन्हें ‘गांधीजी’ कहने लगे। तब से उनका यही नाम प्रचलित हो गया। उन्होंने कभी मोजा, पाजामा, स्वेटर आदि नहीं पहना। घोर सर्दी भी वे एक शाॅल में निकाल लेते थे।
1943 में वे स्वयंसेवक बने। सुगठित शरीर होने के कारण शाखा के शारीरिक कार्यक्रम उन्हें बहुत भाते थे। संघ में घोष के साथ ही उन्हें घुड़सवारी व तैराकी भी बहुत प्रिय थी। 1944 में बी.ए. करने के बाद वे प्रचारक बन गये। गांधीजी ने कभी तेल व नहाने का साबुन प्रयोग नहीं किया। कभी अंग्रेजी दवा नहीं ली तथा कभी निजी अस्पताल में भर्ती नहीं हुए। उन्होंने कभी चश्मा नहीं लगाया तथा अंतिम समय तक उनके दांँत भी सुरक्षित थे। जीवन के अंतिम कुछ दिन छोड़कर उन्होंने किसी से अपनी सेवा भी नहीं करायी।
1945 में गांधीजी मथुरा में जिला प्रचारक थे। वहाँ वे बाढ़ के दिनों में उफनती यमुना को तैरकर पार करते थे। अनेक युवा स्वयंसेवकों को भी उन्होंने इसके लिए तैयार किया। यमुना के किनारे स्थित मथुरा का संघ कार्यालय (कंस किला) एक बड़ा टीला था। वहांँ शाखा भी लगती थी। गांधीजी ने उसे खरीदकर खुदाई कराई, तो नीचे सचमुच किला ही निकल आया। अब उसे ‘केशव दुर्ग’ कहते हैं।
श्रम और श्रमिकों के प्रति अतिशय प्रेम, आदर व करुणा के कारण वे कभी रिक्शा पर नहीं बैठे। यदि किसी के साथ साइकिल पर जाना हो, तो वे स्वयं ही साइकिल चलाते थे। वे कहते थे कि मानव की सवारी तो तब ही करूंँगा, जब चार लोग मुझे शमशान ले जाएंगे। 1952 में गांधीजी गोरखपुर में विभाग प्रचारक थे। उन दिनों नानाजी देशमुख भी वहीं थे। उन दोनों ने प्रांत प्रचारक भाऊराव देवरस के आशीर्वाद से वहांँ पहला ‘सरस्वती शिशु मंदिर’ खोला। आज वह बीज वटवृक्ष बन चुका है। स्वयंसेवी क्षेत्र में ‘विद्या भारती’ आज देश की सबसे बड़ी संस्था है, जिसकी 50,000 से भी अधिक शाखाएं हैं।
इसके बाद भाऊराव ने उन्हें इसके विस्तार का काम सौंप दिया। फिर तो गांधीजी और शिशु मंदिर एकरूप हो गये। लखनऊ में ‘सरस्वती कुंज, निराला नगर’ तथा मथुरा में ‘शिशु मंदिर प्रकाशन’ उन्हीं की देन हैं। इतना करने के बाद भी वे कहते, ‘‘व्यक्ति कुछ नहीं है। ईश्वर की प्रेरणा से यह सब संघ ने किया है।’’
वे सदा गोदुग्ध का ही प्रयोग करते थे। लखनऊ में उनकी प्रिय गाय उनके लिए किसी भी समय दूध दे देती थी। यही नहीं, उनके बाहर जाने पर वह दूध देना बंद कर देती थी।
उत्तर प्रदेश के बाद उन्हें पूर्वोत्तर भारत में भेजा गया। हाफलांग में उन्होंने नौ जनजातियों के 10 बच्चों का एक छात्रावास प्रारम्भ किया, जो अब उधर के सम्पूर्ण काम का केन्द्र बना है। रांँची के सांदीपनि आश्रम में रहकर उन्होंने वनवासी शिक्षा का पूरा स्वरूप तैयार किया तथा ‘प्राची जनजाति सेवा न्यास, मथुरा’ के माध्यम से उसके लिए धन आदि का प्रबंध भी किया।
स्वास्थ्य काफी ढल जाने पर उन्होंने मथुरा में ही रहना पसंद किया। जब उन्हें लगा कि अब यह शरीर लम्बे समय तक शेष नहीं रहेगा, तो उन्होंने एक बार फिर पूर्वाेत्तर भारत का प्रवास किया। वहांँ वे सब कार्यकर्ताओं से मिलकर अंतिम रूप से विदा लेकर आये। इसके बाद उनका स्वास्थ्य लगातार गिरता गया। यह देखकर उन्होंने भोजन, दूध और जल लेना बंद कर दिया। शरीरान्त से थोड़ी देर पूर्व उन्होंने श्री बांके बिहारी मंदिर का प्रसाद ग्रहण किया था। 24 नवम्बर, 2002 को सरस्वती शिशु मंदिर योजना के जनक श्री कृष्ण चन्द्र गांधी ने मथुरा में ही अपनी देह श्रीकृष्णार्पण कर दी।